सुप्रीम कोर्ट का बड़ा बयान — क्या अब आदिवासी समाज को भी मिलेगा संपत्ति में समान अधिकार?
Stringer24 रिपोर्ट • रिपोर्टर: विक्रम सिंह राजपूत • दिनांक: 27 अक्टूबर 2025
देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम बात कही है — “अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार सोचे कि क्या हिंदू उत्तराधिकार कानून को आदिवासी समाज पर भी लागू किया जाना चाहिए।” अदालत का मतलब है कि आदिवासी महिलाओं और बेटियों को भी संपत्ति में बराबर अधिकार मिलना चाहिए, जैसे बाकी समाज में होता है।
“जब समाज आगे बढ़ रहा है, तो आदिवासी महिलाओं के अधिकार भी पीछे नहीं रहने चाहिए।” — सुप्रीम कोर्ट
🌾 क्या है यह 'हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम'?
यह कानून 1956 में बनाया गया था। इसके तहत बेटा और बेटी दोनों को पिता की संपत्ति में बराबर हक़ मिलता है। लेकिन इस कानून की धारा 2(2) कहती है कि यह अनुसूचित जनजाति (ST) पर लागू नहीं होता। यानी अगर कोई व्यक्ति आदिवासी समाज से है, तो उसकी जमीन या संपत्ति का बंटवारा उसके समाज की पुरानी परंपरा या रीति-रिवाज से तय होता है, कानून से नहीं।
कई जगहों पर परंपरा यह कहती है कि जमीन सिर्फ बेटों को मिलेगी, बेटियों को नहीं। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह अब बदलना चाहिए — क्योंकि समाज में औरतें भी मेहनत करती हैं, परिवार चलाती हैं, तो उन्हें भी हिस्सा मिलना चाहिए।
⚖️ अगर यह कानून लागू हुआ तो क्या बदलेगा?
- आदिवासी बेटियों और महिलाओं को भी जमीन, मकान या संपत्ति में समान अधिकार मिलेगा।
- अगर पिता या भाई की मृत्यु हो जाती है, तो बेटियों को भी हिस्सा मिलेगा — सिर्फ बेटे को नहीं।
- महिलाएँ अब अपने नाम से जमीन पंजीकृत (रजिस्टर) करा सकेंगी।
- यह कदम आदिवासी महिलाओं की आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सकता है।
🚫 अभी तक क्यों नहीं लागू था?
सरकार ने पहले यह कहा था कि हर जनजाति की अपनी संस्कृति और नियम हैं, इसलिए यह कानून उन पर लागू नहीं किया गया। लेकिन अब अदालत का मानना है कि समय बदल गया है — अब शिक्षा, रोजगार और सामाजिक बराबरी बढ़ी है, इसलिए महिलाओं के अधिकार भी सुनिश्चित होने चाहिए।
👥 आदिवासी समाज पर इसका असर क्या होगा?
अगर केंद्र सरकार इस दिशा में कदम उठाती है, तो यह फैसला आदिवासी महिलाओं के लिए ऐतिहासिक बदलाव साबित हो सकता है।
- महिलाओं को परिवार में सम्मान और बराबरी का अधिकार मिलेगा।
- आर्थिक रूप से वे आत्मनिर्भर बनेंगी।
- संपत्ति के झगड़ों में भी स्पष्ट कानून रहेगा, जिससे अदालतों में मामलों की संख्या घट सकती है।
🗣️ लेकिन कुछ लोगों को डर भी है...
कुछ आदिवासी नेता और संगठन यह कह सकते हैं कि यह कदम उनकी परंपराओं में दखल है। वे मानते हैं कि उनके समाज की अपनी पहचान है और बाहर के कानूनों को सीधे लागू नहीं करना चाहिए। अदालत ने इस बात का भी सम्मान करते हुए कहा कि सरकार को इस पर समाज से बात करनी चाहिए, और सोच-समझकर फैसला लेना चाहिए।
📢 सरकार के पास अब क्या विकल्प हैं?
- पहला: हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन कर के आदिवासी समाज को भी इसके दायरे में लाना।
- दूसरा: ऐसा नया कानून बनाना जो परंपरा और समानता दोनों को साथ रखे।
- तीसरा: समाज से राय लेकर, पंचायतों, जनजातीय नेताओं और महिला समूहों से बातचीत करके नीति बनाना।
💬 अदालत का संदेश साफ़ है —
“आदिवासी समाज की महिलाएँ भी इस देश की बेटियाँ हैं — उन्हें बराबर हक़ मिलना चाहिए।” — सुप्रीम कोर्ट
🌺 निष्कर्ष — समाज की सोच में बदलाव ज़रूरी
कानून तभी असर दिखाता है जब समाज भी उसे दिल से अपनाता है। यह फैसला सिर्फ अदालत का नहीं, बल्कि आदिवासी समाज के सम्मान और समानता की दिशा में बड़ा कदम है। अब यह केंद्र सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी है कि वे मिलकर आगे का रास्ता तय करें।
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