*विज्ञापन तो देते हैं न फिर तुम हमारे खिलाफ खबर कैसे छाप सकते हो?* ।। पत्रकारिता दोधारी तलवार।।
आज के बदलते हुए इस दौर में मीडिया व्यवसाय के रूप में उभरकर सामने आया है! प्रत्येक व्यापार की तरह आज मीडिया भी एक व्यवसाय के रूप में स्थापित हो गया है! दूसरे अन्य व्यवसाय की तरह हीइस पेशे में भी नफा और नुकसान का गणित होता है और कौन व्यवसाई होगा जो अपने व्यापार में लाभ कमाना नहीं चाहता है!
प्रलोभन,धमकियां,दबाव और समझौतों के बीच खबरों के साथ विज्ञापन का तालमेल कभी कभी समझ से परे हो जाता है।दरअसल किसी भी संस्थान के लिए उसका आय का स्त्रोत बेहद मायने रखता है,ठीक बिलकुल ऐसे ही मीडिया संस्थान के लिए भी विज्ञापन आय का जरिया है।
अक्सर जमीनी पत्रकारिता करने वालों से विज्ञापन लेते समय यह उम्मीद रखी जाती है कि वे इस विज्ञापन के एवज में विज्ञापन प्रदाता के प्रति नरम रुख अख्तियार करेंगे। कई बार तो लोग मीडिया को दिए विज्ञापन को लाइसेंस की तरह भी इस्तेमाल करते हैं।
सबसे अधिक समस्या का सामना ग्राम पंचायतों में कवरेज के दौरान करना पड़ता है,जहां विज्ञापन का दबाव अप्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है! कई बार तो ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है कि, सरपंच और सचिव कहते हैं कि, विज्ञापन दिया था,फिर भी खबर बनाते हो!
एक तरह से वो कह तो सही रहे हैं,लेकिन क्या विज्ञापन का मतलब यह हुआ कि अब कोई भी कितना भी गबन कर ले , चुप रहना होगा? यह विज्ञापन है या फिर भ्रष्टाचार का लाइसेंस? एक पत्रकार के लिए यह समस्या वाकई जटिल है! यह भी एक विडंबना है कि, पत्रकार को जरूरत पड़ने पर पत्रकारिता से अपेक्षा और बड़ी बड़ी बातें करने वाला समाज कहीं दिखाई नहीं देता!
मीडिया संस्थान का विज्ञापन कलेक्शन का दबाव और स्थानीय स्तर पर खबरों का संकलन, क्या आप सोच सकते हैं कि एक पत्रकार किस मानसिक दबाव से गुजरता है। विज्ञापन का बाजार और स्थानीय स्तर पर खबरों का प्रवाह दोनो समान गति से चलते रहें यह किसी भी स्थिति में मुमकिन नहीं हो पाता है।
ये दोहरी जिम्मेदारी एक पत्रकार के लिए तलवार की धार पर चलने के समान है।क्योंकि जिनसे एक बार विज्ञापन ले लिया जाए तो फिर उसके विरुद्ध लिखना बड़ा पेचीदा मामला हो जाता है।
स्थानीय पत्रकार को एक स्टोरी कवर करने के जितने पैसे मिलते हैं वो बहुत कम होते हैं, उस पर यदि विज्ञापन कलेक्शन ना हो तब स्थिति और भी उलझ जाती हैं।जब पत्रकारों की आर्थिक स्थिति पर विश्लेषण और समीक्षा की तो पाया की ग्रामीण इलाकों में तो एक पत्रकार की कमाई मज़दूर से भी कम है।
एक पत्रकार समाज द्वारा जिससे उम्मीद की जाती है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को मजबूत बनाए रखने की। क्या वह पत्रकार उस समाज से कोई अपेक्षा रख सकता है या नहीं?
अक्सर मुझसे कई लोगों का यह कहना रहता है की,जब तुमको रेगुलर विज्ञापन देते हैं तो तुम हमारे खिलाफ खबर कैसे छाप सकते हो। क्या विज्ञापन देने का मतलब यह हुआ कि, कितनी भी बड़ी घटना हो जाए या गबन हो जाए तो हमें चुप रहना होगा? आज हमारे कई साथी इस तरह के खतरों का सामना कर रहे हैं।
हालाकि यह जाहिर सी बात है कि अगर एक ही व्यक्ति (पत्रकार) किसी प्रिंट /इलेक्ट्रॉनिक मिडिया संस्थान या डिजिटल मीडिया हाउस के लिए विज्ञापन वसूले और जरूरत पड़ने पर विज्ञापन देने वाले के खिलाफ नकारात्मक खबर बनाता है, तब स्वाभाविक रूप से तो सामने वाले उस व्यक्ति को सबक सिखाने के तरीके तलाशने लगता ही है।क्या ऐसे हालात में एक पत्रकार की घुटन का अहसास है आपको? किस तरह की मानसिक प्रताड़ना से पत्रकार को गुजरना पड़ता है,आप इसका अंदाजा नहीं लगा सकते हैं।
कई बार तो बड़े शातिराना तरीके से पत्रकार को बदनाम करने की नियत से विज्ञापन कलेक्शन को अवैध वसूली बताकर पत्रकारों की साख खराब करने की भी कोशिश की जाती है। कैसी विडंबना है कि यही विज्ञापन पत्रकारिता की अहम जरूरत है?
जब आम आदमी,सत्ता और अधिकारी का जिक्र किया जाता है तब अकसर यह गौर किया है की पत्रकारों के जिक्र से अक्सर बचा जाता रहा है।अगर हम फिलहाल मोटे तौर पर एक अनुमान के मुताबिक बात करें तो सिर्फ तीस से चालीस प्रतिशत पत्रकार ही ऐसे होंगे जो शासकीय या निजी बड़े संस्थानों में निश्चित और आकर्षक वेतन पर कार्यरत है।बाकी का बचा हुआ वर्ग आज भी कंटेंट पर कमीशन और राष्ट्रीय एवम धार्मिक पर्वों पर विज्ञापन कलेक्शन की दम पर गुजर बसर करता है।इसमें कोई हैरत की बात नही की इन पत्रकारों की आर्थिक स्थिति अनिश्चितता के घोड़े पर सवार रहती है।
ना कोई मंहगाई भत्ता,ना कोई निश्चित वेतन,ना जीपीएफ।
क्या आपने कभी सोचा भी है? की आप जिन पत्रकारों से न्याय की लड़ाई में शासन,प्रशासन,अपराधी ,काले कारोबारी ,भ्रष्टाचारी,गुंडे मावलियों के सामने सीना तान कर खड़े रहने की उम्मीद करते हैं वे समाज में आज किस स्तर पर हैं।हम यहां स्पष्ट कर दें की फेक न्यूज चलाने वाले,अवैध वसूली करने वाले, कॉपी पेस्ट करने वाले,स्क्रीन शॉट, मुद्दों की खरीद फरोख्त के जरिए कमाने की कतार में खड़े तथाकथित पत्रकारों की बात बिलकुल भी नहीं कर रहे हैं।
पत्रकारों को आने वाले फोन कॉल्स पर सिर्फ खबरें और विज्ञापन ही नही होते।अक्सर उन्हें शिकायतों से संबंधित काल भी आते हैं, और समय पर शिकायत या कार्य का निराकरण न होने पर उलाहना भी दी जाती है।
मसलन :
: अधिकारी काम करने के लिए पैसे मांग रहे हैं।
: मनरेगा मजदूरी का पैसा खाते में नहीं आया।
: वहां गांजा बेच रहे हैं।
: मेरे नल में पानी नहीं आ रहा है।
: पड़ोसी ने सड़क और नाली पर अतिक्रमण कर रखा है।
: चरनोई भूमि पर दबंग का कब्जा है।
: मुझे लोग मारने पीटने आए हैं।
: यातायात पुलिस ने रास्ते में रोक लिया है।
: पैसे हैं नही और स्कूल वाले फीस के लिए अभी मान नही रहे हैं।
: हथियार बंद लोग मुझे घेर कर खड़े हुए हैं।
: सरपंच प्र मं आवास पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।
: जीआरएस मनरेगा मजदूरी नहीं दे रहे हैं, त्योहार आ गया है।
इस तरह की अन्य सैंकड़ों शिकायतों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, जहां एक पत्रकार का उपयोग अपने फायदे के लिए किया जाता है।यदी वह समय पर नहीं ध्यान दे सका तो बिकाऊ है,दलाल है, डील हो गई होगी ऐसे तमाम तमगों से भी नवाजने में कोई गुरेज नहीं किया जाता।
सारी उम्र दूसरों के लिए आवाज उठाने वाला खुद के लिए कभी आवाज नहीं उठा पाता।लेकिन ऐसे पत्रकारों के प्रति समाज गंभीर दिखाई नही देता। एक पत्रकार के क्या अधिकार और कर्तव्य हैं यह तो याद रखा जाता है लेकिन उनके प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई जाती।
पत्रकार विज्ञापन चाहते हैं भीख नहीं।लेकिन वे तमाम पत्रकार जो कलम की आग उगलते रहते हैं उन्हे सत्ता,अधिकारी,पंचायत से विज्ञापन के स्थान पर कुटिलता का सामना करना पड़ता है।शायद "सच लिखने की कीमत चुकानी पड़ती है"।कभी धमकी सहनी पड़ती है,तो कभी असमजिक तत्वों के कोप का भाजन बनना पड़ता है और कभी जान देकर लिखने की कीमत चुकानी पड़ती है।
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