*पत्रकारों के लिए किसी मुसीबत से कम नही विज्ञापन कलेक्शन!*
वैसे तो जैसे ही पत्रकार शब्द का उच्चारण किया जाता है तो आम जनमानस की धारणा में ग्लैमर, लाइम लाइट से जुड़ा हुआ पेशा है पत्रकारिता।संभव है लगातार टीवी के सामने बैठकर वो ऐसा सोचने लगे हों।किंतु यह अधूरा सच माना जाना चाहिए।
स्थानीय स्तर पर काम करने वाले प्रिंट और डिजीटल मीडिया के पत्रकारों का जीवन आम धारणा से काफी दूर दिखाई देता है। पत्रकारिता पूरी तरह से विज्ञापन निर्भर व्यवसाय प्रतीत होता है।जहां स्थानीय स्तर के पत्रकारों को विज्ञापन से मिलने वाले कमीशन पर निर्भर रहना पड़ता है।
डीजीटल मीडिया प्रकार हो या फिर प्रिंट मीडिया दोनो ही फुटेज इकट्ठा करने से लेकर तथ्यों का विश्लेषण और समीक्षा के साथ साक्ष्य जुटाते है,तब कहीं जाकर एक स्टोरी कंप्लीट होती है,और इसके एवज में उसे कितना भुगतान मिलता है?नाम मात्र का!
पेट्रोल और अन्य एक्सपेंस की तो बात ही छोड़ दीजिए।कुछ जगहों पर तो यह भुगतान भी दो से तीन माह के विलंब पर मिलता है। उन्हें न केवल वेतन कम मिलता है बल्कि काम के लिए कोई निर्धारित समय भी नहीं होता है।
यह पत्रकारिता के इस पेशे की कड़वी सच्चाई है। उस पर से संबंधित प्रबंधन का विज्ञापन कलेक्शन के लिए दबाव एक पत्रकार के लिए किसी तनाव से कम नही होता है।
अमूमन ऐसा कम ही देखने में आता है जब पत्रकारों के हित की उनकी आर्थिक सुरक्षा की बात की जाती हो।पत्रकारिता पर संकट की बातें तो आपने बहुत सुनी होंगी लेकिन पत्रकारों पर संकट की बातों को कितनी गम्भीरता से लिया जाता है।
अपनी जान जोखिम में डालकर सच को सामने लाने वाले पत्रकार किन खतरों के बीच जीते हैं!इसका अहसास किसे है?सबको सच चाहिए लेकिन उस सच को सामने लाने वाले के बारे में कब विचार किया जाएगा? शाम होते ही बच्चे चिंता करने लगते हैं,अंधेरा हो गया पापा अभी तक नही आए, मां और पत्नी बारबार फोन करने की कोशिश करते है,पिता जी की नजर घड़ी की ओर ही लगी रहती है।यह कोई रेयर कहानी नहीं है।
अक्सर सबकी जुबान पर एक ही बात रहती है,पत्रकारिता के अलावा और कोई पेशा क्यों नही?उनकी चिंता और सवाल वाजीफ भी है।
अपनी खोजी पत्रकारिता के दौरान मेरा जिले के अधिकांश हिस्सों में जाना हुआ और यहां मेरी स्थानीय पत्रकारों से मुलाकातें हुई,कई बार उनके घर जाने का मौका भी मिला।इस दौरान मैंने पत्रकारों के जीवन के उतार चढ़ाव और उनकी समस्याओं पर विश्लेषण किया।
दरअसल खबर बनाने के साथ जो पत्रकार साथी विज्ञापन कलेक्शन का काम भी देखते हैं,उन्हे एक अलग तरह के खतरे का सामना करना पड़ता है,जिससे कभी ना कभी हर पत्रकार का गुजरना होता ही है।
यह एक कटु सच्चाई है कि लोगों को पत्रकारों से खबर तो चाहिए लेकिन कभी कोई उनकी खबर नहीं पूछता।
आपको यहां मैं एक छोटे से उदाहरण से समझाता हूं ,इसे ऐसे समझिए कि अगर एक ही आदमी किसी संस्थान के लिए विज्ञापन वसूले और जरूरत पड़ने पर विज्ञापन देने वाले के खिलाफ निगेटिव खबर लिखे तब पत्रकार के लिए यह काम दुधारी तलवार पर चलने जैसा है।मुझे लगता है कि जिले ही नही बल्कि प्रदेश के तकरीबन हर हिस्से में स्थानीय पत्रकारों का यही हाल है।
प्रिंट मीडिया के कुछ बड़े अखबारों को छोड़ दें तो छोटे और मझौले अखबारों के साथ ही डिजिटल मीडिया संस्थानों को भी मुख्यतः परोपकार के नाम पर मिलने वाले अनुदान पर निर्भर होना पड़ता है।
पत्रकार का काम समाज को आईना दिखाने का होता है। समाज में व्याप्त समस्याओं से लेकर आम जनता की बातों को रखना पत्रकार का धर्म है।पत्रकारों के सामने आज कई बड़ी चुनौतियां हैं, इसके बावजूद वह अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं।