हमीरपुर की रेशमा... दर्द, कीचड़ और बैलगाड़ी में मां बनने की कहानी!
23 साल की रेशमा को प्रसव पीड़ा हुई — पर गांव तक एम्बुलेंस नहीं पहुंच सकी!
तीन किलोमीटर कीचड़ और गड्ढों से भरे रास्ते को उसने बैलगाड़ी पर तड़पते हुए पार किया।
रास्ते में हर गड्ढे ने जैसे उसके दर्द को दोगुना कर दिया। कीचड़ में फंसी बैलगाड़ी के पहियों के साथ उसकी सांसें भी अटकती रहीं। कोई स्ट्रेचर नहीं, कोई स्वास्थ्यकर्मी नहीं — बस बैलगाड़ी और बेबसी थी। गांव की औरतें उसकी पीठ थामे थीं, और सड़क हर झटके में मां बनने की कीमत पूछ रही थी।
ये हमीरपुर है, पर ये दर्द हर उस गांव का है, जहाँ “एम्बुलेंस” सिर्फ पोस्टर पर है। ये वही भारत है, जहाँ सरकारें रिपोर्ट कार्ड दिखाती हैं — और गांवों में औरतें दर्द के कार्ड पर हस्ताक्षर करती हैं।
🔥 सवालों की आग:
- क्या ये 2025 का भारत है — या अभी भी 1947 की मिट्टी में फंसा हुआ देश?
- कहाँ हैं वो अधिकारी जो ‘हर जननी सुरक्षित’ का नारा लगाते हैं?
- सड़कें किसके लिए बन रही हैं, जब एक प्रसूता तक नहीं पहुंच पाती?
- क्यों हर बारिश में विकास की पोल बहकर नालों में चली जाती है?
रेशमा का सफर अब सिर्फ दर्द नहीं — एक सवाल बन गया है, जो हर जिम्मेदार कुर्सी से पूछ रहा है — “क्या यही है वो इंडिया, जिस पर गर्व करने को कहा जाता है?”
“क्या है इंडिया?” — ये सवाल अब विदेशियों का नहीं, हर उस मां का है, जो इस मिट्टी में तड़पकर भी चुप है।
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