🔥 “जब बरमान के मैदान में गूंजा परंपरा का शोर — मुर्गों की लड़ाई ने खींची भीड़”
“दो मुर्गे आमने-सामने — जैसे दो योद्धा रणभूमि में उतर आए हों।”
लोगों के चेहरों पर रोमांच था, बच्चों की आंखों में जिज्ञासा। हर वार पर शोर उठता, हर फड़फड़ाहट पर तालियां बजतीं। किसी ने दांव लगाया, किसी ने बस तमाशा देखा — लेकिन जो हो रहा था, वह नर्मदा तट की लोक-परंपरा और कानून दोनों के बीच की गहरी खाई को दिखा रहा था।
⚔️ मैदान में मचा शोर
देखने वालों के मुताबिक ये डेरे वाले हर साल बरमान क्षेत्र में डेरा डालते हैं।जहां कभी कभी छोटे-छोटे समूहों में मुर्गों की लड़ाई होती है, दांव-पेच लगते हैं और धीरे-धीरे यह एक छुपा हुआ जुआ बन जाता है। भीड़ में कुछ लोग इसे ‘खेल’ कह रहे थे, तो कुछ धीरे से कह उठे — “बेचारों को मरने क्यों देते हैं?”
“यह परंपरा की आड़ में चल रहा क्रूर मनोरंजन है, जिसे अब समाज की संवेदना से देखे जाने की जरूरत है।”
बरमान जैसे पवित्र स्थल पर, जहाँ रोज़ नर्मदा आरती की गूंज उठती है, वहीं कुछ ही कदम दूर यह हिंसक प्रदर्शन — सवाल खड़ा करता है कि क्या परंपरा के नाम पर ऐसे आयोजन उचित हैं?
🎙️ रिपोर्टर की नजर से
मैं भीड़ में खड़ा देख रहा था — हवा में धूल उड़ रही थी, तालियों और चिल्लाहटों की गूंज में दो मुर्गे लहूलुहान हो रहे थे। यह दृश्य केवल एक लड़ाई नहीं, बल्कि संवेदनाओं की हार थी। बरमान का यह मैदान आज बता गया कि लोक संस्कृति और कानून के बीच कितनी लंबी दूरी अब भी बाकी है।
