पत्रकारों को मिल रहा सट्टे का हफ्ता?
फेसबुक पर गरम हुआ चर्चाओं का बाजार — पुलिस की कार्यशैली पर उठ रहे गंभीर सवाल
नरसिंहपुर। सोशल मीडिया के गलियारों में इन दिनों एक चर्चा तेज़ी से घूम रही है — “पत्रकारों को सट्टे का हफ्ता मिल रहा है”। यह वाक्य अब केवल मज़ाक नहीं रहा, बल्कि जिले के मीडिया जगत की साख पर एक करारा तमाचा बन गया है।
“अगर कुछ पत्रकार सच्चाई छिपाने का सौदा कर रहे हैं, तो खबर और खबरनवीसी दोनों खतरे में हैं।” — स्थानीय नागरिक की टिप्पणी
सूत्रों के मुताबिक, कुछ इलाकों में सट्टेबाज़ और तथाकथित पत्रकारों के बीच एक मौन समझौता चल रहा है। साप्ताहिक “नजराने” के एवज में सट्टे की खबरें दबा दी जाती हैं। सोशल मीडिया पर आए पोस्टों में तो यहां तक लिखा गया कि “जो सट्टा नहीं लिखता, वो खबर नहीं छपवाता” — यह पंक्ति जिले के पत्रकार समाज के लिए किसी आइने से कम नहीं।
🎤 ‘प्रेस कार्ड’ बना पासपोर्ट?
कई यूज़र्स ने व्यंग्य करते हुए लिखा कि “अब सट्टा ठिकानों पर पुलिस से पहले प्रेस कार्ड पहुंचते हैं।” यह तंज केवल एक वर्ग पर नहीं, बल्कि उस पूरी व्यवस्था पर सवाल है जिसमें खबर बेचने और खबर छुपाने के बीच की रेखा धुंधली हो चुकी है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पत्रकारिता अब जनसेवा से हटकर जनसंपर्क और जनसंपत्ति बनती जा रही है? या फिर यह सब केवल सोशल मीडिया का एक अतिशयोक्तिपूर्ण हमला है? सच्चाई जो भी हो, चर्चाओं ने निश्चित रूप से ईमानदार पत्रकारों को असहज कर दिया है।
👮♂️ पुलिस की कार्यशैली पर भी उठे सवाल
पुलिस प्रशासन की भूमिका भी अब जांच के घेरे में है। लोगों का कहना है कि यदि जिले में सट्टा खुलेआम चल रहा है, तो या तो पुलिस अनजान बनने का नाटक कर रही है या फिर किसी अदृश्य दबाव में है। किसी ने तंज कसा — “जहां हफ्ता तय, वहां छापा नहीं।”
“सट्टे का खेल तो पुराना है, लेकिन अब इसमें मीडिया के कुछ चेहरे भी शामिल बताए जा रहे हैं। कौन हैं ये सट्टेबाज मीडिया?ये प्रिंट मीडिया के पत्रकार हैं या फिर डिजिटल मीडिया के?” — फेसबुक यूज़र की टिप्पणी
🧾 पत्रकार संगठनों की चुप्पी
और सबसे बड़ी विडंबना यही है कि जिले के पत्रकार संगठनों की चुप्पी इस आग में घी डालने का काम कर रही है। जब पत्रकारिता पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं, तब संगठनों की ओर से कोई औपचारिक बयान तक नहीं आया। इससे लोगों में यह धारणा और मजबूत हो रही है कि “कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है।”
📍 निष्कर्ष
पत्रकारिता जनता का आईना मानी जाती है, लेकिन जब आईना ही धुंधला होने लगे, तो चेहरा कौन दिखाएगा? यह रिपोर्ट किसी को दोषी ठहराने के लिए नहीं, बल्कि उस साख की याद दिलाने के लिए है जो अब दांव पर लगी है।
जरूरत है आत्ममंथन की — क्योंकि अगर खबर बिकने लगी, तो भरोसा मर जाएगा।
 
