लेखक: विक्रम सिंह राजपूत | स्थान: नरसिंहपुर
पत्रकारिता कभी “चौथा स्तंभ” कही जाती थी, लेकिन अब लगता है इस स्तंभ की दीवारों में दरारें पड़ चुकी हैं। कारण – मीडिया में बढ़ती भाईगिरी। यह भाईगिरी न केवल पत्रकारिता की आत्मा को खा रही है, बल्कि सच और झूठ के बीच की सीमाओं को भी धुंधला कर रही है।
"जहां खबरें सवाल बनना बंद हो जाएं, वहां भाईगिरी शुरू हो जाती है।"
मीडिया में 'भाईगिरी' का मतलब क्या?
यह शब्द आमतौर पर अपराध जगत से जुड़ा माना जाता है, लेकिन अब यह मीडिया की गलियों में भी गूंज रहा है। ‘भाईगिरी’ यानी किसी गुट, नेता, अफसर या कारोबारी के प्रति झुकाव — खबर नहीं, संबंध निभाना। अब खबरों से ज्यादा “सेटिंग” की चर्चा होती है, और पत्रकारिता को “नेटवर्किंग” में बदल दिया गया है।
जब पत्रकार ‘भाई’ बन गए
पहले पत्रकार सत्ता से सवाल पूछते थे, अब कई पत्रकार सत्ता के सलाहकार बन बैठे हैं। खबरों की जगह अब फोटोशूट और बयानबाजी चल रही है। कुछ मीडिया घराने अपने ‘भाइयों’ को बचाने के लिए सच्चाई को सेंसर कर देते हैं, और जो सच्चे पत्रकार सवाल उठाते हैं, उन्हें ‘एंटी सिस्टम’ घोषित कर दिया जाता है।
"जो पत्रकार सच बोलता है, वही इस ‘भाईगिरी गैंग’ के लिए सबसे बड़ा खतरा है।"
भाईगिरी के तीन चेहरे
- राजनीतिक भाईगिरी: सत्ता पक्ष या विपक्ष के एजेंडे पर चलने वाले मीडिया ग्रुप।
- प्रशासनिक भाईगिरी: अफसरों की चमक-दमक में सच्चाई की आवाज़ दब जाना।
- कारोबारी भाईगिरी: विज्ञापन या फंडिंग के बदले खबरों की दिशा बदल जाना।
और जनता कहां जाए?
जब खबरें तय होती हैं कि किसे दिखाना है और किसे नहीं, तो जनता के विश्वास पर सबसे बड़ा वार होता है। आम आदमी जिसे सच्चाई जानने का हक है, वह झूठ के प्राइम टाइम में फंस जाता है।
जरूरत है कि पत्रकारिता फिर से अपनी पुरानी आत्मा को पहचाने — जहां डर नहीं, सवाल हों; जहां संबंध नहीं, सच्चाई हो।
"पत्रकारिता तब तक जिंदा है, जब तक उसमें भाईगिरी नहीं, बहादुरी है।"
 
