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संपादकीय विचार | विशेष टिप्पणी

क्या मीडिया अपना दायित्व निभा भी रहा है?

कभी मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता था, लेकिन आज यह स्तंभ कहीं झुक गया है, कहीं टूट गया है, और कहीं बेचा जा चुका है। सवाल उठता है — क्या मीडिया आज भी वही है जो जनता की आवाज़ बनकर सत्ताओं से सवाल करता था?

पिछले कुछ वर्षों में खबर और प्रचार के बीच की रेखा इतनी पतली हो गई है कि अब पहचानना मुश्किल है कि कौन “पत्रकार” है और कौन “प्रचारक”। जहाँ कभी कलम तलवार से ज्यादा ताक़तवर मानी जाती थी, वहीं अब कलम पर चैनल मालिक, विज्ञापनदाता और सत्ता का दबाव हावी दिखने लगा है।

सच्चाई अब हेडलाइन नहीं बनती, बल्कि ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की दौड़ में कहीं दम तोड़ देती है।

टीआरपी, व्यूज़ और लाइक्स की होड़ ने पत्रकारिता को बाजार में खड़ा कर दिया है। मुद्दे गायब हैं — किसान की तकलीफ़, मज़दूर की आवाज़, और गाँव की कहानी अब सिर्फ सोशल मीडिया की पोस्टों में बची हैं। स्थानीय पत्रकार जो सच्चाई सामने लाते हैं, उन्हें या तो दबाया जाता है या डराया जाता है।

फिर भी उम्मीद की लौ बुझी नहीं है। देशभर में ऐसे कई पत्रकार हैं जो बिना संसाधनों के भी सच्चाई की मशाल थामे हुए हैं। यही वो लोग हैं जिनकी वजह से पत्रकारिता अब भी जीवित है, भले ही घायल हो।

अब ज़रूरत है आत्ममंथन की

मीडिया को फिर से जनता का विश्वास जीतना होगा। उसे सत्ता की गोद से निकलकर सड़क की आवाज़ बनना होगा। जब तक पत्रकारिता फिर से “धंधा” नहीं बल्कि “धर्म” नहीं बनेगी, तब तक यह सवाल यूँ ही जिंदा रहेगा —

“क्या मीडिया अपना दायित्व निभा भी रहा है?”

✍️ सम्पादकीय टीम | Stringer24News

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