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क्या प्रशासन के पास यातायात के लिए कोई ठोस रूपरेखा नहीं?
सड़कें सिकुड़ रही हैं, व्यवस्था सो रही है और जनता समझौता कर रही है!
नरसिंहपुर: सुबह की पहली किरण के साथ ही शहर की सड़कों पर ठेले, खोमचे और फल-सब्जी विक्रेताओं की चहल-पहल शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे ये चहल-पहल ऐसा रूप ले लेती है कि सड़कें गायब हो जाती हैं और ट्रैफिक एक जाल की तरह उलझ जाता है। यह नज़ारा अब शहर की पहचान बन चुका है।
कभी सब्जी वाला और राहगीर भिड़ते हैं, कभी खोमचे वाले से बाइक सवार उलझ जाते हैं। हर दिन की यही कहानी अब आम हो चली है।
दरअसल ये नज़ारा सिर्फ अव्यवस्था नहीं, बल्कि भूख, बेबसी और प्रशासनिक लापरवाही की कहानी भी बयां करता है। ठेले वाले जानते हैं कि सड़क पर बैठना जोखिम भरा है, लेकिन जब घर की रसोई में चूल्हा ठंडा पड़े तो सुरक्षा की चिंता कौन करे?
शहर की जनता भी अब इस स्थिति की अभ्यस्त हो चुकी है। हर दिन जाम में फंसना, हॉर्न की आवाज़ से झल्लाना और फिर उसी सड़क से निकल जाना — यह अब नरसिंहपुर की दैनिक दिनचर्या बन चुका है। लेकिन सवाल वहीं का वहीं है — क्या प्रशासन के पास यातायात और ठेला बाजार के लिए कोई ठोस नीति है?
स्मार्ट सिटी में 'स्मार्ट ओपन मार्केट' की जगह कहां है?
शहर विकास योजनाओं में चौड़ी सड़कें, लाइटें और पार्क तो दिखाई देते हैं, लेकिन छोटे व्यापारियों के लिए कोई निश्चित स्थान नहीं। स्थानीय प्रशासन हर दिन कर और शुल्क तो वसूल करता है, पर बदले में न बिजली की व्यवस्था है, न पेयजल की, न शेड या स्थायी जगह की।
नतीजा यह है कि ठेले और खोमचे वालों की रोज़ी-रोटी अब सड़कों के बीच पिस रही है। वहीं दूसरी ओर, ट्रैफिक पुलिस और नगर पालिका कर्मचारी सिर्फ "हटाओ-लगाओ" की कार्रवाई तक सीमित हैं। कोई स्थायी समाधान नजर नहीं आता।
नगर पालिका चौराहा — जहाँ सड़क और बाजार एक हो जाते हैं!
नगर पालिका चौराहे के आसपास दोनों ओर तेजी से फैलता स्ट्रीट मार्केट अब शहर के ट्रैफिक के लिए स्थायी सिरदर्द बन चुका है। लेकिन इसे अगर नियोजित रूप से फोल्डेबल स्टॉल या “मिनी स्ट्रीट मार्केट ज़ोन” में बदला जाए, तो यह क्षेत्र न सिर्फ व्यवस्थित होगा बल्कि शहर की खूबसूरती में भी चार चांद लगेंगे।
रविवारीय बाजार परिसर में चौपाटी मॉडल पर स्ट्रीट मार्केट विकसित करना प्रशासन के लिए एक स्वर्ण अवसर साबित हो सकता है।
इसी तरह सुभाष पार्क चौराहा और आसपास के क्षेत्रों को भी एक मॉडल मार्केट के रूप में विकसित किया जा सकता है। अगर बिजली, पेयजल, और शेड जैसी मूलभूत सुविधाएं प्रदान की जाएं तो न केवल ट्रैफिक व्यवस्था सुधरेगी, बल्कि सैकड़ों परिवारों की आजीविका को भी स्थायित्व मिलेगा।
इसके साथ ही, फुटपाथों पर से कब्जे हट जाने से पैदल चलने वाले राहगीरों को भी राहत मिलेगी। वे सुरक्षित रूप से सड़कों पर चल सकेंगे और यातायात का प्रवाह भी सहज बनेगा। इस तरह यह पहल न केवल व्यापारिक बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बेहद उपयोगी साबित हो सकती है।
अब सिर्फ शहर नहीं, कस्बे भी मांग रहे हैं व्यवस्था
यह समस्या केवल शहरों तक सीमित नहीं है। तहसील मुख्यालयों और छोटे कस्बों में भी यही हाल है। अराजक ढंग से लगने वाले ठेले, दुकानों के सामने तक फैलते खोमचे, और दिनभर चलने वाला कोलाहल — यह सब प्रशासनिक दूरदर्शिता की कमी का प्रतीक है।
यदि इन जगहों पर भी स्थायी चौपाटी ज़ोन या “स्मार्ट स्ट्रीट मार्केट” विकसित किए जाएं, तो न सिर्फ रोजगार सुरक्षित होगा बल्कि अतिक्रमण, पैदल यात्रियों की असुविधा और यातायात जैसी पुरानी समस्याओं से भी राहत मिलेगी।
वक्त आ गया है कि प्रशासन सड़कों पर ठेला हटाने की बजाय उन्हें व्यवस्थित करने की दिशा में कदम बढ़ाए — क्योंकि ये ठेले सिर्फ दुकानें नहीं, सैकड़ों घरों की रोटी हैं।
अब देखना यह है कि आने वाले समय में स्थानीय प्रशासन इस गंभीर मुद्दे को कितनी गंभीरता से लेता है — क्या फिर से फाइलों में ही योजनाएँ दम तोड़ देंगी, या वाकई कोई ठोस रूपरेखा बनकर सामने आएगी?
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