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विश्लेषणात्मक रिपोर्ट | संपादकीय दृष्टिकोण

कल इतिहास हंसेगा...

✍️ एक कठोर सच्चाई, जो आने वाले समय के पन्नों पर दर्ज होगी

जिस विकास और व्यवस्था के नाम पर आज गाल बजाए जा रहे हैं — कल इतिहास इन्हीं घटनाओं पर हँसेगा।

कल इतिहास हंसेगा — जब वो इन कागजी विकास योजनाओं के फटे हुए पन्ने पलटेगा। जब वो देखेगा कि “अमृतकाल” कहे जाने वाले इस दौर में लोग जहर पीकर भी मुस्कुराना सीख गए थे।

जहाँ भाषणों की रौशनी में झोपड़ियों का अंधेरा छुपा दिया गया था, जहाँ “स्मार्ट सिटी” के नाम पर टूटे फुटपाथों से जनता लहूलुहान हो रही थी।

जहाँ प्रशासन के मंच पर “सफलता” के नारे गूंज रहे थे, और जनता की शिकायतें फाइलों में धूल खा रही थीं।

शिकायतों की शाखाओं पर शाखाएँ खुलती रहीं, पर न्याय का पेड़ सूख चुका था।

हर आदेश कागज़ की स्याही में जिंदा था, हर जाँच सिर्फ “औपचारिकता” बन चुकी थी। भ्रष्टाचार का ऐसा साम्राज्य था कि ईमानदारी मजाक बन गई थी।

बीस करोड़ लोग भूखे पेट सोते रहे, और टीवी स्क्रीन पर “विकास यात्रा” चलती रही। किसान के खेत सूख गए, पर भाषणों में बारिश जारी रही।

जहाँ बेरोज़गार युवाओं को रोजगार नहीं, रील बनाने की सलाह दी गई — ताकि वो अपनी हँसी में अपनी पीड़ा छुपा सके।

जहाँ मजदूर सड़कों पर दम तोड़ते रहे, और सिस्टम ने उन्हें “माइग्रेंट डेटा” कहकर भुला दिया।

जहाँ अदालतों में तारीखें बढ़ती रहीं, और इंसाफ कब्र में सो गया। शिक्षा का बाज़ार खुल गया, और ज्ञान अमीरों की जेब में कैद हो गया।

“नारी सशक्तिकरण” की तस्वीरें वायरल हुईं, और उसी शहर में एक और औरत सड़क पर लुट गई।

जहाँ मंदिरों में आरती गूंजती रही, और न्यायालयों में चीखें दबा दी गईं। धर्म, जाति और नारे — सत्य, नीति और संविधान पर भारी पड़ गए।

कल इतिहास हंसेगा — जब वो देखेगा कि हमने सवाल पूछने वालों को देशद्रोही कहा, और मौन रहने वालों को राष्ट्रवादी बना दिया।

जहाँ मीडिया सत्ता के आगे झुका नहीं, बल्कि पूरी तरह लेट गया। पत्रकारों ने सच दिखाने की बजाय “प्रायोजित खबर” बेचना सीख लिया।

जहाँ कलेक्टरों के सोशल मीडिया पेज चमकते रहे, पर जनसुनवाई में सन्नाटा पसरा रहा। जनता की आवाज़ को “टिप्पणी” कहकर अनसुना कर दिया गया।

“भारत माता की जय” बोलने वाले भारत की बेटी की चुप्पी पर खामोश रहे। सच्चाई की कीमत इतनी बढ़ गई कि ईमानदार आदमी “संवेदनहीन” कहलाने लगा।

झूठ को सजा नहीं, मंच मिला था। और सत्य की लाश पर भाषण दिए जाते थे।

जहाँ “विकास” का मतलब था — कागज पर पुल, भाषण में अस्पताल, और धरातल पर खामोशी।

और इतिहास हँसेगा इसलिए नहीं कि उसे मज़ा आएगा — बल्कि इसलिए कि हमारे समय की त्रासदी, हमारे चेहरे की मुस्कुराहट में छिपी हुई थी।

© Stringer24 News | सत्य और समाज के बीच की कड़ी.

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